देखा है मैने उन्हें
सीढ़ियो पर,
अकेले बैठ रोते हुए
कि आ कोई उनका भी पौत्र
उन्हें दादी-दादा कह
पुकार सके,
कुछ कहानियाँ सुने
और कुछ सुना सके ।
पर नहीं,
हर शाम की
ढलती हुई रौशनी के
साथ,
उनकी उम्मीदें भी ढलती जा
रहीं हैं
ढलती जा रही हैं वो बेबस
नजरे
जो ना देखे हमे तो
छलक पड़ती थी,
जो खाने की थाली ले हमारे पिछे
मचल पड़ती थी
हमे सुलाने के प्रयास में
रात भर जगने वाली
आँखो को
बस इसका ही इंतेजार है
कि उनके अपनो की आँखे
कभी उन्हे भी देख
पायेंगी
शायद इसीलिए,
देखा है मैने उन्हें
सीढ़ियो पर
अकेले बैठ रोते हुये ।