बदल रहा ये विश्व आज है 

बदल रहा ये सकल समाज ।



बदल रहा ये विश्व आज है
बदल रहा ये सकल समाज
बदल रही है सबकी काया
बदल रही मानवता आज

बदलावो मे घिर कर प्राणी
नित्य ही करते है प्रलाप
बदलावो को आड़े लेकर
फैलाते है ये प्रताप

बेच दिया है इज्जत सब ने
बदलावो मे फसकर ऐसे
केचूलों के मर्म मे फस कर
अलग किया हो सर्प ने जैसे

कहते है कलयुग है आया
इसकी यही बढ़ाता शान
बिन बदलावो के बिचन में
जैसे अटके इनकी जान

क्या इन बदलावो की माया
रख पायेगी इनकी लाज
बदल रहा ये विश्व आज है
बदल रहा ये सकल समाज ।

बदलावो को सबने देखा
पर स्थिति न समान है
चंद्रिका से परे सही ही
सूर्य बढ़ाता मान है

चंद्रिका ने बदलावो को
नित्य दिया अभिमान है
सूर्य की गर्मी चहु दिशा मे
फैली सकल समान है

सूर्य बिना यामिनी का
जैसे है खत्म समाज
बदल रहा ये विश्व आज है
बदल रहा ये सकल समाज ।

बदलावो का नियम बताती
यह प्रकृति की समुचित वास
पर बदलो न इस अंतर से की
लिख जाए समग्र विनाश

बदलावो के घाव को नम दे
तरु ,गिरि ,नद्य के समुचित भाव
बदल-बदल के भी जो न बदली
ऐसी है प्रकृति की छाव

बदल रहा ये विश्व आज है
बदल रहा ये सकल समाज।