बेटी....
मैं भी अब जीना चाहती हूँ।
बन कर ईक बाप की बेटी,
भाई की बहन,
ममता केे आँचल में,
कुछ लम्हें सीना चाहती हूँ,
दो घूँट सब्र से अवसाद पिकर,
मैं, मैं भी अब जीना चाहती हूँ ।
दोस्तो संग स्कूल के रास्तो पर,
आम के बगिचों में,
या फिर खेल के मैदानों में,
अठखेलियाँ करती हुई,
खुद को भिगोना चाहती हूँ,
दो घूँट सब्र से अवसाद पिकर,
मैं, मैं भी अब जीना चाहती हूँ ।
अत्याचार के मापदण्डो से परे,
दिन के उजालो से भरे,
कहीं दूर किसी आसियाने में,
कुछ प्रेम भरे गीत पिरोना चाहती हूँ,
दो घूँट सब्र से अवसाद पिकर,
मैं, मैं भी अब जीना चाहती हूँ ।
2 Comments
कृपया अपने विचार प्रकट करे।
ReplyDeleteSo nice
ReplyDeletePost a Comment