आजकल,
आज बीक रहा है
कल बीक रहा है
और लोग बीक रहे हैं
कौड़ीयों के भाव
बस खरीददार मिलना चाहिये।

गाँव बीक रहे
जिले बीक रहे
प्रदेश बीक रहा
सह राजनीति की वार
बस खरीददार मिलना चाहिये।

पाप बीक रहा
पून्य बीक रहा
धर्म बीक रहा
जाती की फिर क्या मिज़ाज
बस खरीददार मिलना चाहिये।

रीस्ते बीक रहे
नाते बीक रहे
अपने बीक रहे
फिर परायों से क्या आस
बस खरीददार मिलना चाहिये
बेच रहे हैं बहू
कुछ बेटियाँ,
खुद तक का सरोकार
बस खरीददार मिलना चाहिये।।

हर दिन बहस छिड़ती है
कभी हिंसा तो कभी असहिष्णुता का वार
संसद के सत्र बिकते है
कर गरीब के पेट पर वार
आप बीकते है
मैं बीकता हूँ
और तूम भी
बस खरीददार मिलना चाहिये।