एक गौरैया फँसी
खो गई जिसकी हँसी
मैं ने देखा मंदिर के बगल
बाँस की ऊचाइयों पर असम्हल
गौरैये को देते थे मार
चोच से अनेकों कौए बारम्बार
एक और थी वहाँ उसके लिए
प्यार था या और फिर वो किसलिए ?
उड़ गयी वह भी अकेले बाद में
साथ उसका छोड़ के मजधार में
है बुराई की यही वासता
बड़ रही है जिसकी दिन-दिन दासता

क्या पता यूं पथ के थकान से

जा वहाँ बैठी थी आसमान से

या किसी ने यूं उसे खदेड़ के

रख दिया हो आश्रय उधेड़ के

या यूं पग में बेड़ियों के मार से

मिल रही नयी किरण,आशार से

फँस गई हो काक के ही माँद में

दिख गया हो या शिखर उम्माद में

इसलिए ही जा वहाँ वह बैठकर

काक है असमान जानकर

डूबते यूं धार के गलियार में


या यूं ही तिनके की आसार में।

फँस गया था पाँव उसका उच्च में

पथ एवं पग के सम्मूच में

जोर से दिया उसे झकझोर के

धँस चुका था पाँव यूं ही जोर के

दिख रहा था अस्त उसका हौसला

पड़ गया कठिन था लेना  फैसला

फिर अचानक तकतों के होड़ से

कोशिश किया समग्र जोड़ से

यूं लगा थर्रा गया ये भू आसमान

घट गया हो जैसे बेड़ियों का भी मान

बन्धने छूटी उड़ी यूं हर्ष के समान

वसन्ती हवा का जो बया हो मान


उस समय का दर्द,
उसके नेत्र में झलक रहा था
फिर भी जीत का वो हर्ष
दर्द को डूबो रहा था
बेड़ियों में फँस के जिसकी
जान पे थी बन ही आई
हिम्मतों के हौसलों ने
फिर वहीं थी लीं अगड़ाई
उसकी वो जुबानिया
गीत गार ही यही
बेड़ियों में फस के जीवन
नर्क ना बने कहीं
और ये भी दास्तां
जो छोड़ के वो यूं चली
ये हार थक के बैठना
यूं दलदलों में ले चली।