पाहून जलद हो ,जलनिधि गढ़ के
आना मेरे गाँव
बनठन के ,सँवर के ।
लिये नीर पावन
जो दांडी से आवन
इस भूमि की तो है
मिट्टी सुहावन
जो देश की बेड़ा
जोखों ने घेरे
नमक से बापू ने
यही के,उधेरे
जो याद यूं आये
समय था जो पावन
पड़ेगा जो बापू के
घर का वो आँगन
प्रेम दो बुँदे,
वही कुछ गिरा के
आना मेरे गाव
बनठन के ,सँवर के ।
अग्र में बढ़कर
आरावली को चढ़कर
जो झाँसी पड़े तो
यहाँ कुछ समयकर
जो झाँसी पड़े तो
उसे न भुलाना
गोरो को यहाँ भी था
हार ही पाना
उस वीरांगना की थी
ऐसी दहाड़
गिरे सुन गोरे थे
हिमालय पहाड़
इन्ही सब मे जिनको
मै खोजत भटककर
यू थार में तपते
पथिक को संभलकर
दो अमृत की बुँदे
उसे फिर पिला के
आना मेरे गाँव
बनठन के ,सँवर के ।
जो वायु के घेरे
चड़े ले अचल पर
तो कहना उन्हे ले,
आना सुरसरि पर
मेरे ग्राम ही हैं
ये प्राणी इधर के
आना मेरे गाव
बनठन के ,सँवर के ।
जो दक्षिण से पूर्वी
बयारे मचलकर
चले तुम भी इन संग
सजधज कर,सवरकर
तो गंगा के पदचिन्ह
पढ़कर,समझके
आना मेरे गाव
बनठन के ,सँवर के ।
यूं राहों में देखों
जो वसुधा का संगम
तो कुछ बूंद संग में
ले लेना यूं बन नम
ये संगम नहीं
मधु का है मिश्रण
जिसे प्राप्त करने को
युद्ध था भीषण
सूर,असुर की थी
मिश्रित कहानी
जिन्हे है सुनती
ये धारा जुबानी
बढ़ो जो हवा संग
तो यू रस्तों पर
मिले जो भी शुष्क
ये पुष्प काही पर
तो कुछ बूंद इसकी
वहाँ भी गिरा के
आना मेरे गाव
बनठन के ,सँवर के ।
जो गाँव मे आये
तो भूमि ऊसर है
कुछ फल भी हैं
पर कहीं और कहीं हैं
इन्हें देखकर यूं
चले फिर न जाना
तुम्हीं के तो जल से
इन्हें है सजाना
सवर जायेगा फिर ,
तो हर्ष आयेगा
तुम्हारी ही महिमा के
गुण गायेगा
जैसे सीप मोति
बने बूंद पड़ के
आना मेरे गाव
बनठन के ,सँवर के ।
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